भारत का व्यथित किसान

पिछले अंक का सारांश - भारत का व्यथित किसान पिछले अंक में प्रकाशित किया गया इस अंक में प्रकाशित है। इस लेख में किसान की दुर्दशा पर उल्लेख किया गया था। मुख्यमंत्री के कथन किसान के कर्ज पर पैदा होने और मृत्यु होने से प्रारंभ हुआ और पंचायत ग्राम शहर के किसान की स्थिति पर चिंतन मनन हुआ। वहीं संसद पंचायत तक का उसमें उल्लेख मजदूरों एवं परिवारों पर गहरा अध्ययन व टिप्पणी की गई।


आधुनिक भारत का किसान


टैक्टर आ गए है, कुएं हो गए, बिजली आ गई, नहर आ गई, सिंचाई के पंप आ गए, दौड़ भाग के लिए मोटर साइकिल आ गई। बात करने के लिए मोबाइल आ गए हैं। दस एकड़ जमीन है। बैंक ने टैक्टर के लिए लोन दिया है। बैंक ने मोटर साइकिल लिए लोन दे दिया। सरकार ने किसान क्रेडिट कार्ड दिया। इसका लिमिट दस एकड़ के लिए 20 हजार रुपए एकड़ से तीस हजार रुपए एकड़ है। यानि उसको दो लाख रुपया मिल गया। मार्केटिंग सोसायटी के पास खाद्य आ गई, दवाई आ गई। सहकारी बैंक में खाता । उसने सोसायटी को किसान की जमीन पर खाद्य पैसे दे दिये, दवाई के पैसे दे दिये, सहकारी बैंक ने मोटर पंप के लिए ऋण दे दिया। पाइप के लिए ऋण दिया। बाड़ लगाने के लिए लोन दे दिया। किसान खटिया पर बैठे चिलम तंबाकू पी रहे थे, बात निकली तो बोले दस एकड़ का किसान कुआं,पंप बिजली टैक्टर, ट्राली और मोटर साइकिल के दस लाख के लोन के नीचे दबा हुआ है। किसान क्रेडिट कार्ड पर मोबाइल खरीद लिया। घर में टीवी आ गया, रेफ्रिजरेटर आ गया, दिनभर मोबाइल और फोन की घंटी बजती है, हमने कहा 'यह तो भारत के गांव का आधुनिक होने का संकेत है।' 'आप क्या समझते है वृद्ध पुरुष के स्वर में थोड़ी तलखी थी, क्या हम उन्नति की दिशा में नहीं बढ़ रहे थे। क्या हम नहीं जानते थे, क्या बोना, क्या काटना, कब बोना, कब काटना? हम अनपढ़ थे, किंतु हम अज्ञान नहीं थे' फिर रूक कर बोले 'गांव का नाई चला गया, गांव का मोची चला गया, गांव का बढ़ई चला गया, गांव का बुनकर चला गया, गांव का सुतार-सुनार चला गया, और तो और गांव का पंडित चला गया।' तो क्या हुआ?' बहुत कुछ हुआ, अब हर काम के लिए शहर दौड़ना पड़ता है। बिजली, डीजल, पेट्रोल, मोबाइल टेलीफोन पर अतिरिक्त खर्च बढ़ गया। इन सबके किराये, इन सबके सुधारने पर गांव से शहर को जाता है। हर माह यह खर्चा है। यह सब यही रह जाता, नाई, धोबी, सुनार, सुतार, मोची, पंडित, साल भर काम करते, यहीं से सब घर से अनाज पहुंचता, गांव की कमाई गांव में ही रह जाती, अब बाहर जाती है। कर्जे की किस्त और ब्याज अलददा 'आमदनी बढ़ेगी।' हमने कहा तो यह सब होगा? आमदनी का तुम्हारा पैमाना क्या है' वृद्ध बोले हम जितने रुपए में सोना खरीदते थे, आज ट्रेक्टर भर अनाज बेचने के बाद भी उतना नहीं खरीद पाते। कहो तो आमदनी बढ़ी की घटी?


'यह तो होता ही रहेगा?'


नहीं जी खर्च करने की प्राथमिकताएं बदल गई। उनने उत्पादक वस्तुओं पर अधिक खर्च हो रहा है। हमें लगा उठ जाना चाहिए और तब ही कर्जे वसुली पर बैंक के लोन आ गए। किसान क्रेडिट कार्ड की रकम चुकती करने का वक्त आ गया। उसकी दूसरी कहानी है। किसान क्रेडिट कार्ड की रकम 30 जून को भरनी रही है। खाद्य दवाई की रकम भी 30 जून को भरना है। पंसारी बजाज, दवाई वालों की भी खबर आ गई। गेहूं बिक गया, रकम जमा करा दो।


इसी से जुड़ी बात


कस्बे में 4.5 लोग सक्रिय हो गये। ये रिटायर्ड लोग है। काम धंधा बंद कर बैठे लोग है। बैंक मेनेजर का फोन जाता है। मेरे यहां दस खाते हैं, बीस लाख रुपए के तीस जून तक भरना है। 3 जुलाई को खाता रिन्यू हो जाएगा। उसका चेक ले लेते हैं। वैसे ही क्रेडिट हुआ, उधारी के चेक ले लेते हैं । चेक की रकम आप के खाते में जमा हो जाएगा। 20 लाख पर पांच रोज में दस लाख मिलेंगे। 50 हजार आप के 50 हजार हमारे । खाते उलटफेर कर बराबर हो गए। किसान को दस हजार की चोट लग गई। खाया पिया कुछ नहीं यह गांवकी क्रेडिट का ड्रामा है। किसान 30 जून को 2 लाख से कर्जे में था, 3 जुलाई को 2 लाख 10हजार के कर्जे में हो गया। कर्जा देने और कर्जा माफ होने में किसान और बैंक के बीच लाला खड़ा है। वह कभी कर्जे से बाहर नहीं आ सकता। किसान को सस्ती खाद्य चाहिए, सस्ता बीज चाहिए, सस्ता टैक्टर चाहिए आज इस सब पर वह 3 लाख खर्च करता है। उसकी आमनदी दो लाख है। आज कर्ज माफ हआ. कल फिर चढ़ता जाएगा। किसान कर्जे में पैदा हुआ कर्जे में मरेगा। पता नहीं जमीनदार, व्यापारी. बैंक और सूदखोरों से कौन छुटकारा दिलाएगा। चौराहे पर भाषण देने वालों से दूर रखिए किसान को। किसान अपना अन्न अपने पास रखता, दूसरे को देता, ढोर ढंगर के गोबर से खाद्य बनाता, आपने आधुनिकता के नाम से सब बदल दिया। हर काम के लिए बैंक की ओर देखता है। हर खर्चे में प्रसन्न होता है।


माल-ए-मुफ्त मिले, बेदर्द-बेशर्म...


 जिनकी रकम आप कर्जे माफी के लिए देते हैं, तो उससे कम तो खाद्य दवाई, डीजल, पेट्रोल, बिजली सिंचाई को टैक्स फ्री करने में लगेंगे।